मानवीय संबंधां की आधारशिला पारिवारिक संबंध में बालक अपने विकास के लिए परिवार के सदस्यों पर निर्भर रहता है। आज समाज में होने वाले सामाजिक परिवर्तनों का प्रभाव पारिवारिक संबंधों में पड़ रहा है तथा यह परिवर्तन एक समाज से दूसरे समाज में भिन्नता लिए हुए होता है। इन परिवर्तनों के कारण बदलती हुई सामाजिक व्यवस्था में भारत जैसे परंपरागत देशों मं बालकों को अनेक प्रकार के अनुभवों से गुजरना पड़ता है। परिवर्तन की इस धारा में एक बात प्रत्यक्ष रूप से उभर कर आयी है कि माता-पिता अपने बच्चों को समझने में असमर्थ रहे हैं। ऐसा विशेष रूप से उन परिवारों के विषय में सत्य है जो पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित हैं। वर्तमान में इस धारणा के समर्थकों की संख्या भी दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है कि बालक का विकास मनोवैज्ञानिक विधि से होना चाहिए। इस मान्यता को स्वीकार करने वाले अधिकांशतः लोगों के मस्तिष्क में मनोविज्ञान का अर्थ भी जटिलताओं से गुथा हुआ है। उनके अनुसार बालक एक स्वतंत्रा व्यक्तित्व लेकर जन्म लेता है, इसलिए उसके व्यक्तित्व पर माता-पिता को अपना व्यक्तित्व नहीं थोपना चाहिए और न ही उसे बन्धनों में जकड़ना चाहिए क्योंकि अत्यधिक प्रेम और उन्मुक्त स्वतंत्राता इन दो आधारों पर ही उसका स्वतंत्रा व्यक्तित्व विकसित होता है। कुछ परिवार विश्लेषकों के अनुसार जहाँ बालकों को आवश्यकता से अधिक स्वतंत्राता होती है, वहाँ बालक प्रतिभा संपन्न और योग्य बनने की अपेक्षा उद्दण्ड ही बन जाता है। अतः बालक को सही दिशा में निर्देशन की आवश्यकता होती है।